ममता सभर मेरी मा

17 मार्च

मुझे याद नहीं कि बचपन में कभी सिर्फ इस वजह से स्‍कूल में देर तक रुकी रही होऊं कि बाहर बारिश हो रही है। ना। भीगते हुए ही घर पहुंच जाती थी। और तब बारिश में भीगने का मतलब होता था घर पर अजवाइन वाले गर्म सरसों के तेल की मालिश। और ये विदाउट फेल हर बार होता ही था। मौज में भीगूं तो डांट के साथ-साथ सरसों का तेल हाजिर। फिर जब घर से दूर रहने लगी तो धीरे-धीरे बारिश में भीगना कम होते-होते बंद ही हो गया। यूं नहीं कि बाद में जिंदगी में लोग नहीं थे। लेकिन किसी के दिमाग में कभी नहीं आया कि बारिश में भीगी लड़की के तलवों पर गर्म सरसों का तेल मल दिया जाए। कभी नहीं। ऐसी सैकड़ों चीजें, जो मां हमेशा करती थीं, मां से दूर होने के बाद किसी ने नहीं की। किसी ने कभी बालों में तेल नहीं लगाया। मां आज भी एक दिन के लिए भी मिले तो बालों में तेल जरूर लगाएं। बचपन में खाना मनपसंद न हो तो मां दस और ऑप्‍शन देती। अच्‍छा घी-गुड़ रोटी खा लो, अच्‍छा आलू की भुजिया बना देती हूं। मां नखरे सहती थी, इसलिए उनसे लडि़याते भी थे। लेकिन बाद में किसी ने इस तरह लाड़ नहीं दिखाया। मैं भी अपने आप सारी सब्जियां खाने लगीं।

मेरी जिंदगी में मां सिर्फ एक ही है। दोबारा कभी कोई मां नहीं आई, हालांकि बड़ी होकर मैं जरूर मां बन गई। लड़कियां हो जाती हैं न मां अपने आप। प्रेमी, पति कब छोटा बच्‍चा हो जाता है, कब उस पर मुहब्‍बत से ज्‍यादा दुलार बरसने लगता है, पता ही नहीं चलता। उनके सिर में तेल भी लग जाता है, ये परवाह भी होने लगती है कि उसका फेवरेट खाना बनाऊं, उसके नखरे भी उठाए जाने लगते हैं। लड़कों की जिंदगी में कई माएं आती हैं। बहन भी मां हो जाती है, पत्‍नी तो होती ही है, बेटियां भी एक उम्र के बाद बूढ़े पिता की मां ही बन जाती हैं, लेकिन लड़कियों के पास सिर्फ एक ही मां है। बड़े होने के बाद उसे दोबारा कोई मां नहीं मिलती। वो लाड़-दुलार, नखरे, दोबारा कभी नहीं आते।

लड़कियों को जिंदगी में सिर्फ एक ही बार मिलती है मां…।

होली के मायने..

12 मार्च

होली के 3 अर्थ हैं….!!

(1) होली

आर्थात हम भगवान के “हो लिए” ।तन, मन, धन, समय, स्वांस, संकल्प, सब भगवान के लिए है । भगवान के दिए हुए हैं।

(2) होली

अर्थात जो बात “होली”सो होली ।अर्थात विगत बात (past is past)जो हो गया सो हो गया।

(3)होली

अर्थात पवित्रता (purity) holi अर्थात his holiness .

ये तीनों ही अर्थ हमारे लिए बहुत ही कल्याणकारी हैं meaning full हैं ।

हम भगवान के अनुसार जीवन जियें । बीती बातों का चिंतन न करें। जीवन को दिव्यता से भर ले।ऐसी सच्ची होली मनानी हैं।

होलिका दहन….!!

अचेतन मन में ना जाने कितनी इच्छाएं, कितने प्रदूषित बिचार कितनी ईर्ष्याऐं, अंदर ही अंदर चेतना को बोझिल और प्रदूषित एवं परेशान करती रहती हैं। होली का यह उत्सव आज हमें वह अवसर उपलब्ध कराता है, जब हम अपने अन्दर जमा इस कूड़े- कचरे को बाहर निकालकर अपनी चेतना को हल्का और निर्मल बनायें।

इस पावन पर बाहर और भीतर दोनों जगह स्वच्छ और पवित्र रहने के संकल्प लें…!!

आप सभी को होली की शुभकामना….!!

घर कब आओगी बेटी ?

10 मार्च

अभी तो गरमियों की छुट्टियाँ लगने में दो-ढाई महीने हैं, अभी से कैसे बताऊँ कब आऊँगी? गरमियों में स्नेहा की एक्सटरा क्लासेस भी तो हैं। और फिर उसकी म्यूज़िक क्लासेस भी तो हैं।

अपने पापा का घर आने का आग्रह सुन अवंतिका ने एक ही साँस में उन्हें इतना कुछ बता दिया। पापा भी बेटी की बात सुन और कुछ ना बोले। बस इतना ही कहा,”हम्म, समझ सकता हूँ” और फ़ोन माँ को पकड़ा दिया। माँ ने भी कहा,”पता नहीं क्या हो गया है। कल से तुझे बहुत याद कर रहें हैं। कल सुबह से ही शुरू हैं की कब गरमियों की छुट्टियाँ लगेंगी कब अवंतू घर आयेगी?”

बोलते बोलते माँ का तो गला ही भर आया।

तीन साल बीत चुके थे अवंतिका को अपने घर गये हुये। हर साल कुछ ना कुछ एेसा निकल ही आता था की वह दस दिन के लिये भी अपने घर ना जा सकी थी। हाँ, माँ और पापा ज़रूर मिल आये थे उसके ससुराल जा कर उससे पर वह ना आ पायी थी अपने घर।

माँ ने थोड़ा ज़ोर दे कर कहा,”हो सके तो इस बार घर आजा। पापा को बहुत अच्छा लगेगा”।

इस पर अवंतिका ने माँ से कहा,”माँ, तुम तो समझती हो ना। आख़िर तुम भी तो कभी ना कभी इस दुविधा में पड़ी होगी”।

माँ ने भी लम्बी साँस छोड़ते हुये हामी भर दी।

अवंतिका ने कहा,” अच्छा चलो अब कल बात करतें हैं। स्नेहा के टेनिस क्लास का समय हो गया है।

पूरा दिन भागमभाग में निकल गया और रात को थककर जब वह सोने के लिये अपने कमरे में आई तो सोचा था लेटते ही सो जायेगी पर आज नींद को तो जैसे बैर हो गया था उससे। बिस्तर पर लेटे लेटे वह मम्मी पापा से हुयी बातों के बारे में सोचती रही। पूरे दिन की व्यस्तता में समय ही कहाँ था की वह इस बारे में कुछ सोचती भी। वह सोचने लगी कैसे हर बार मम्मी पापा उसके आने की राह देखतें हैं और उसके किसी भी कारणवश ना जा पाने की वजह समझ कर चुप रह जातें हैं। काश! वह भी कहते, नहीं हम कुछ नहीं समझते। हमें कुछ नहीं सुनना तुमको घर आना ही होगा। काश! अपनी बेटी पर थोड़ा हक़ वह भी जता पाते। क्यूँ हर बार वह सब समझ जातें हैं। क्यूँ वह कभी भी ज़िद्द नहीं करते। इन्हीं सब बातों के बीच कब उसकी नींद लगी पता ही नहीं चला।

सुबह छ: बजे नींद खुली। उसने अपने नियमित काम फुरती से निबटाये। स्नेहा को स्कूल भेजा और मयंक को ऑफ़िस। फिर रोज़ की तरह एक हाथ में नाश्ते की प्लेट और दूसरे हाथ में माँ पापा से बात करने के लिये फ़ोन लिया। वह अपने कमरे में आकर पलंग पर बैठी ही थी की मोबाइल पर अपने पापा के मैसेज पर उसकी नज़र पड़ी। मैसेज रात साढ़े बारह बजे का था।

मैसेज खोला तो उसमें लिखा था,”तेरी हर ज़िम्मेदारी का एहसास है मुझे बेटी पर इस बार अपने बूढ़े पिता की जिद्द ही समझ ले इसे। इस बार तेरी एक ना सुनुँगा। इस बार तुझे घर आना ही होगा।

अवंतिका की आँखें नम हो गयीं। वह फिर सोचने लगी की कैसे बिना कहे ही आज भी उसके पापा उसकी हर बात समझ जातें हैं।उसने अपने पापा को मैसेज किया,”पापा, काश! हर बार आप ऐसे ही जिद्द करते और मैं आपकी जिद्द के आगे हार मान कर अपने घर आ जाती। काश! हर बार आप इतना ही हक़ जताते और हर बार मैं लौटती अपने आँगन में जहाँ मेरा बचपन फिर से लौट आता है।

उसकाफोन बज उठा। पापा का ही फ़ोन था। बिना एक पल गँवाये उसने फ़ोन उठाया। दोनों के गले भरे हुये थे। पापा ने बस प्यार से इतना ही कहा,”बेटी इस बार तुझे लेने मैं ख़ुद आँऊगा”।

शायद आपकी और मेरी कहानी भी अवंतिका की कहानी से कुछ हद तक मेल खाती है। आइये इस बार अपने बचपन का कुछ हिस्सा मम्मी पापा को लौटा दें। आइये इस बार गरमियों की छुट्टियाँ अपने मायकें में ही बिता दें।

नेट की रचना है…..!!

मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है

1 मई

जब कोई किसी पर कहीं ज़ुल्म ढाता है,
मेरा ये अंतर मन क्यों टूट जाता है,
जब कोई फूलों को पैरों में बिछाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |

माली चुन चुन कर फूल बेंच देता है,
कीमत मिल जाने पर खूब इतराता है,
दूसरी सुबह में चमन फिर फूल जाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |

जिसके उगते ही जो पुलकित हो जाती है,
पक्षी चहकते हैं कलियाँ खिल जातीं हैं,
वो रवि जब धरती पर आग बरसाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है|

जो दर्द सह कर वंश को चलाती है,
जो घर की खुशियों में जीवन लुटाती है,
उस कन्या जन्म पर घर आंसू बहाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |

कुछ हंस के देते हैं कुछ हंस के लेते हैं,
कुछ लेने देने को इज्जत समझते हैं,
जब दहेज़ के लिए वर, वधू को जलाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |

जिसके स्वागत में वो अँखियाँ बिछाती है ,
खुद भी संवरती है घर भी सजाती है,
वो पति जब पत्नी को आँखें दिखाता है,
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |

लाल को निहार कर बलिहारी जाती थी,
उसको सीने से लगा थकन उतर जाती थी ,
वो बेटा, माता को ब्रद्धाश्रम लाता है
मेरा ही स्वाभिमान क्यों चोट खाता है |

निर्मला सिंह गौर

ये कविता मुझे बेहद पसंद आई इसीलिये इसे मैं ने अपने ब्लोग पर रखी है….मेरा इस मे कोई योगदान नहीं है…मैं इन कवियत्रीजी को बधाई देती हूं…

संकीर्णता की चेतना

21 मार्च

हाल ही में मेरे परिवार में भतीजे की शादी का अवसर था । सभी कुछ भली भांति चल रहा था ।  हर और आनंद ही आनंद छाया हुआ था । अचानक शादी की अगली रात मेरे  भाई और  मेरे जीजाजी में कुछ बात को ले कर कहासुनी हो गई । वैसे ये कहासुनी के पीछे ग़लतफ़हमी ही हुई थी या यूं समझे कि काफी समय से मन में चल रहे मनगढ़ंत सवालों से जूझ रहे थे दोनों के मन । जो भी हो पर कहीं न कहीं दोनों के विश्वासों पर ठेस लगी थी । मामला बिचकता जा रहा था । तभी मेरे कानों ने सुना…भई इन्हों से अपने पितृ या देवी-देवताओं के लिये कोई चूक तो नहीं हो गई ? ज्यादातर हम हिन्दू इस बात से डरते हैं कि अगर हम ने नियमित रूप से और ठीक प्रकार से अपने गाँव के देवताओं को संतुष्ट नहीं किया , तो देवता और देवियाँ परेशान हो जाएंगे और इसके कारण हमारे अच्छे बुरे अवसरों में नकारात्मक घटनाएं घट सकती है । इसलिए अवसर के मौके पर देवताओं का तुष्टीकरण करने हेतु उनकी पूजा की जानी चाहिये । इस प्रकार की पूजा के पीछे जो आधार है वो डर है, विशेष तौर से अगर हम अपने अनुष्ठान संबंधी दायित्वों में चूक करेंगे , हमें दंडित होना पड़ेगा या फिर हम किसी तरह से पीड़ा पाएंगे ।

मेरा नीजि तौर से मानना है कि हमारे भगवान क्रोध, पीड़ा पहुंचाना, न्याय , प्रतिशोध या संकीर्णता की चेतना में नहीं रह सकते । वे प्रेम एवं प्रकाश के प्राणी हैं , हम पर अपना आशीर्वाद बरसाते हैं , बावजूद इसके कि हम असफल हों, कमजोर हों या हम में और कमियाँ हों। इस विश्वास की मूल भूत भावना को रखते हुए ही हमारा हिंदू धर्मएक आनंद पर आधारित धर्म है , जिसमे किसी को पितृ या भगवान से कभी भी डर ने की आवश्यकता नहीं है , इस बात के लिए कभी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है कि अगर हम पूजा नहीं करेंगे तो पितृ या भगवान आहत हो जाएंगे या हमें किसी तरह की सजा देंगे। पूजा उच्चतम मायनों में प्रेम का बाहर निकल कर बहना है । भगवान प्रेम हैं और कुछ और नहीं परंतु प्रेम हैं और हमारे पूर्वज तो हमारे अपने हैं वे भला हमें दुःखी कैसे कर सकते हैं ?

सही कहूं तो हमारा हिंदू धर्म एक ऐसा आनंदमय धर्म है , जो कि पश्चिम के धर्मों में प्रचलित सभी मानसिक ऋण के भार से मुक्त है । यहाँ श्रद्धा  है , ये अंधश्रध्धासे मुक्त है । जब नकारात्मक घटनाएँ घटती हैं, जैसे कि शादी में विध्न, बच्चे कि मौत , बाढ़ या अचानक बीमारी, बड़े लोग जरूरी अनुष्ठानों में हुई कमियों को ढूंढते हैं , यह मानते हुए कि देवता उनसे हुई पूजा के किसी पहलू की कमी के लिए दंडित कर रहे हैं । अगर हम इन तथ्यों में विश्वास रखें तो मुझे आशा है कि भगवानों कि प्रकृति कि बेहतर समझ से ऐसे अंधविश्वासों पर काबू करने में मदद मिलेगी ।

हिन्दू दर्शन यह सिखाता है कि हमारे जीवन में जो घटता है , वह चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक , वह हमारे पूर्व जन्म के किए गए कार्यों का परिणाम होता है । एक चिंताजनक स्थिति स्वयं के द्वारा पैदा किया गया दुर्भाग्य है । भगवान द्वारा दिया गया दंड नहीं । जीवन जो आनंद और दुख, उत्साह और अवसाद , सफलता और विफलता, स्वास्थ्य और बीमारी , अच्छे और बुरे समय का अनुभव होता है वह महज एक इत्तफाक ही होता है । पुजा अनुष्ठान उन्हें संतुष्ट करने या उनके गुस्से को शांत करने हेतु नहीं किए जाते बल्कि उनके प्रति प्रेम व्यक्त करने एवं उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन लेने का आवाहन करने हेतु किए जाते हैं ।

अनुष्ठान द्वारा तुष्टीकरण का एक शास्त्रीय उद्देश्य भी है कि  नकारात्मक ऊर्जा से बचा जाये जो हमारे जीवन को परेशान करती हैं । एक अन्य दृष्टिकोण से अगर हम देवी-देवता एवं पितृओं के दयालु स्वभाव को समझने का प्रयास करें और ऐसा करते हुए मन में बसे पुराने भय को निकाल दें , तो हमें भगवान या देवी-देवता व पितृओं को एक माता पिता के रूप में और स्वयं को एक बच्चे के रूप में देखना होगा । सच्चे मायने में तो ये हमारे लिये एक सम्पूर्ण माता पिता के समान हैं , क्योंकि चाहे हम कुछ भी करें , ये हमें सदेव आशीर्वाद और प्रेम भेजते हैं । जब हम गलती करते हैं वे कभी हम से नाराज़ नहीं होते एवं हमें कभी दंडित नहीं करते । इन का प्रेम उत्तम प्रेम है , जो हर समय मौजूद रहता है , सभी हालत में ।

 कमलेश अग्रवाल

अनुभूति

2 मार्च

एक बार एक व्यक्ति नाई की दुकान पर अपने बाल कटवाने गया| नाई और उस व्यक्ति के बीच में ऐसे ही बातें शुरू हो गई और वे लोग बातें करते-करते भगवान के विषय पर बातें करने लगे|

तभी नाई ने कहा – “मैं भगवान के अस्तित्व को नहीं मानता और इसीलिए तुम मुझे नास्तिक भी कह सकते हो”

“तुम ऐसा क्यों कह रहे हो”  व्यक्ति ने पूछा|

नाई ने कहा –  “बाहर जब तुम सड़क पर जाओगे तो तुम समझ जाओगे कि भगवान का अस्तित्व नहीं है| अगर भगवान होते, तो क्या इतने सारे लोग भूखे मरते? क्या इतने सारे लोग बीमार होते? क्या दुनिया में इतनी हिंसा होती? क्या कष्ट या पीड़ा होती? मैं ऐसे निर्दयी ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो इन सब की अनुमति दे”

व्यक्ति ने थोड़ा सोचा लेकिन वह वाद-विवाद नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा और नाई की बातें सुनता रहा|

नाई ने अपना काम खत्म किया और वह व्यक्ति नाई को पैसे देकर दुकान से बाहर आ गया| वह जैसे ही नाई की दुकान से निकला, उसने सड़क पर एक लम्बे-घने बालों वाले एक व्यक्ति को देखा जिसकी दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी और ऐसा लगता था शायद उसने कई महीनों तक अपने बाल नहीं कटवाए थे|

वह व्यक्ति वापस मुड़कर नाई की दुकान में दुबारा घुसा और उसने नाई से कहा – “क्या तुम्हें पता है? नाइयों का अस्तित्व नहीं होता”

नाई ने कहा – “तुम कैसी बेकार बातें कर रहे हो? क्या तुम्हें मैं दिखाई नहीं दे रहा? मैं यहाँ हूँ और मैं एक नाई हूँ| और मैंने अभी अभी तुम्हारे बाल काटे है|”

व्यक्ति ने कहा –  “नहीं ! नाई नहीं होते हैं| अगर होते तो क्या बाहर उस व्यक्ति के जैसे कोई भी लम्बे बाल व बढ़ी हुई दाढ़ी वाला होता?”

नाई ने कहा – “अगर वह व्यक्ति किसी नाई के पास बाल कटवाने जाएगा ही नहीं तो नाई कैसे उसके बाल काटेगा?”

व्यक्ति ने कहा –  “तुम बिल्कुल सही कह रहे हो, यही बात है| भगवान भी होते है लेकिन कुछ लोग भगवान पर विश्वास ही नहीं करते तो भगवान उनकी मदद कैसे करेंगे|”

सारांश

विश्वास ही सत्य है| अगर भगवान पर विश्वास करते है तो हमें हर पल उनकी अनुभूति होती है और अगर हम विश्वास नहीं करते तो हमारे लिए उनका कोई अस्तित्व नहीं|  

नेट के सौजन्य से…

प्रायश्चित

6 दिसम्बर

एक बार कुछ विद्यार्थी रसायन विज्ञानं प्रयोगशाला में कुछ प्रयोग कर रहे थे. सभी विद्यार्थी अपने अपने प्रयोगों में व्यस्त थे कि अचानक एक लड़के की परखनली से तेज बुलबुला उठा और उसकी छिट्कियाँ सामने प्रयोग कर रही लड़की की आँखों में चला गया.

पूरी प्रयोगशाला में हाहाकार मच गया, सभी खूब परेशांन हुए, आनन फानन में उस लड़की को अस्पताल पहुँचाया गया, वहाँ डाक्टरों ने बताया कि वो अपनी आँखें खो चुकी है. ये सुन कर उस लड़की के घर वालों ने उस लड़के को कोसना शुरू कर दिया और स्कूल वालों ने उस लड़के को स्कूल से निकाल दिया.

अब वो अंधी लड़की अपनी नीरस ज़िन्दगी बिता रही थी, जो शायद किसी की लापरवाही की वजह से वीरान सी हो गयी थी, अब उस लड़की की ज़िन्दगी में कोई भी रंग कोई मायने नहीं रखता था. घर वाले भी वक़्त बेवक्त उस लड़के को कोसते रहते थे जिसने उनकी लड़की की ज़िन्दगी खराब कर दी थी. आज कल के ज़माने में तो किसी के सामने हूर परी भी बैठा दो तो भी लड़के वालों को उससे भी ज्यादा खूबसूरत चाहिए होती है. फिर उस बिचारी की वीरान ज़िन्दगी में रंग भरने की बात सोच पाना भी असंभव सा था. खैर वक़्त बीतता गया और उस लड़की को उस वीराने की आदत हो गयी. क्योंकि अब उसकी ज़िन्दगी में कही से भी उजाला आने की कोई गुंजाइश नहीं थी.

अचानक एक दिन एक बड़े इंजीनियर का रिश्ता उस अंधी लड़की के घर आया. यही नहीं लड़का खुद उसके घरवालों से उसका हाथ मांगने अपने माँ बाप के साथ आया था. घर वाले मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे कि बैठे बिठाये उन्हें अपनी अंधी लड़की के लिए लड़का मिल गया लेकिन लड़की इस बात से काफी दुखी थी. शायद इसलिए कि वो किसी की ज़िन्दगी खराब नहीं करना चाहती थी. इसलिए उसने लड़के को अन्दर बुलाया और बोली कि मैं अंधी हूँ आपके घर का कोई काम मैं नहीं कर पाउंगी, आपको मुझसे कोई सुख नहीं मिल पायेगा, आप एक इंजीनियर हैं इसलिये आपको तो एक से बढ़कर एक लड़कियां मिल जायेंगी. आप प्लीज़ अपनी ज़िन्दगी खराब मत कीजिये. इस पर वो लड़का आगे बढ़ा और घुटनों के बल बैठकर लड़की का हाथ पकड़कर बोला :

प्लीज़ तुम इस शादी के लिए हाँ कहके मुझे मेरा प्रायश्चित कर लेने दो, मैं वही हूँ जिसने तुम्हारी ज़िन्दगी वीरान की है और आज मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ. प्लीज़ मना मत करना. ये सुन कर वो लड़की रोने लगती है, ये सोच कर नहीं कि उसकी ज़िन्दगी खराब करने वाला उससे शादी करना चाहता है. बल्कि ये सोच कर कि इस दुनिया में ऐसे लोग भी है जो अपनी गलती को स्वीकारना जानते हैं ।।

By Anmolvachan.in   10/11/2014

 

क्या आप परेशान हैं ?

17 अक्टूबर

कुछ चीज़ें आपके काबू से बाहर होती हैं। इस बात को जितना जल्दी हो सके स्वीकार कर लें। इससे आपके लिए अपनी समस्‍याओं को काबू करना आसान होगा। बेशक यह कहना आसान है और करना जरा मुश्किल, लेकिन आपके पास इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं है !! जिन चीजों पर आपका नियंत्रण नहीं, उन्हें लेकर परेशान होने से फायदा भी क्या है ?

आजकल सामाजिक उत्कंठा एक बड़ी समस्या बन गई है। इसे हम अकसर सोशल एन्जायटी के नाम से जानते हैं। अगर आपका छोटी-छोटी बातों पर दिल घबराने लगता है या लोगों के बीच जाने पर अचानक आपके दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं, मन बेचैन हो उठता है और समझ में नहीं आता कि  क्या किया जाए या फिर अगर रात को सोते समय आप करवटें बदलते रहते हैं और किसी भी तरह आपके मन को शांति नहीं मिलती तो ये सामाजिक उत्कंठा मतलब की सोशल एन्जायटी के लक्षण हो सकते हैं। जिसे सामाजिक संत्रास (social phobia) भी कहते हैं। जिससे निपटने के लिए आपको सही रणनीति की जरूरत होती है। आज की बदलती जीवनशैली और बढ़ते तनाव के कारण लोगों में यह समस्या तेजी से बढ़ रही ।

ये क्या है संत्रास (phobia) ?

संत्रास एक प्रकार का रोग है, जिसमें इंसान को किसी खास वस्तु, कार्य एवं परिस्थिति के प्रति भय उत्पन्न हो जाता है। संत्रास में अपने खुद के द्वारा एक डर की सोच उत्पन्न हो जाती है जो व्यक्ति को इतना डरा देती है कि उसकी मानसिक व शारीरिक क्षमताओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। इसमें इंसान का डर वास्तविक या काल्पनिक दोनों ही हो सकते हैं। आमतौर पर किसी भी तरह के संत्रास से ग्रस्त रोगी अपने डर पर पर्दा डाले रहते हैं। उन को लगता है कि अपना डर दूसरों को बताने से लोग उन पर हंसेंगे। इसीलिए वे अपने डर व उन परिस्थितियों से सामना करने की बजाय बचने की हर सम्भव कोशिश करते हैं।

सोशल फोबिया से ग्रस्त इंसान कुछ विशेष परिस्थितियों से डरते हैं। उन्हें लगता है कि लोग उनके बारे में बुरा सोचते हैं और पीठ पीछे उनकी बुराइयां करते हैं। ऐसे में व्यक्ति समाज के सामने अपने आपको छोटा समझने लगता है और उसका आत्मविश्वास कमजोर पड़ता जाता है। लोगों के सामने वह बोल नहीं पाता है और डरा सा रहता है।

पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह रोग अधिक देखा जाता है। इस रोग के होने तथा बढ़ने में पारिवारिक और आस-पास के माहौल का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यह अनुवांशिक भी हो सकता है या फिर किसी बुरी घटना का साक्षी होने की वजह से एन्जायटी डिस्‍ऑर्डर के लक्षणों में छोटी-छोटी बात पर घबरा जाना, लोगों के बीच जाने पर या बात करने पर दिल की धड़कन बढ़ना, पसीने छूटना, दिमाग का काम न करना, फैसला करने की क्षमता कम होना, बोलते हुए घबराहट, पेट में हलचल महसूस होना तथा हाथ-पैरों में कंपन होना आदि शामिल होते हैं।

अच्छे और सकारात्मक लोगों से दोस्ती और आपकी सकारात्मक भावना और हिम्मत ही आपको सोशल एन्जायटी से बाहर आने में सबसे ज्यादा मदद कर सकती है। किसी भी घटना, किसी भी विषय और किसी भी व्यक्ति के प्रति अच्छा सोचें, उसके विपरीत न सोचे। दूसरे के प्रति अच्छा सोचेंगे, तो आप स्वयं के प्रति भी अच्छा करेंगे। कटुता से कटुता बढ़ती है। मित्रता से मित्रता का जन्म होता है। आग, आग लगाती है और बर्फ ठंडक पहुँचाती है। 

सकारात्मक सोच बर्फ की डली है जो दूसरे से अधिक खुद को ठंडक पहुँचाती है। यदि आप इस मंत्र का प्रयोग कुछ महीने तक कर सके तब आप देखेंगे कि आप के अंदर कितना बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया है। जो काम सैकड़ों ग्रंथों का अध्ययन नहीं कर सकता, सैकड़ों सत्संग नहीं कर सकते, सैकड़ों मंदिर की पूजा और तीर्थों की यात्राएं नहीं कर सकते, वह काम सकारात्मकता संबंधी यह मंत्र कर जाएगा। आपका व्यक्तित्व चहचहा उठेगा। आपके मित्रों और प्रशंसकों की लंबी कतार लग जाएगी और आप इस संत्रास से निजात पा सकोगे । 

अगर आपने अपना ध्यान सकारात्मकता पर केंद्रित कर लिया तब न केवल अच्छे विचार आएंगे, बल्कि आप स्वयं के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ हो पाएंगे। यह स्थिति आते ही आपके कार्यों पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ना आरंभ हो जाएगा। एक बार आपके मन में सकारात्मकता के विचार आना आरंभ हो गए तब आप अपने आप में स्वयं ही परिवर्तन देखेंगे और यह परिवर्तन आपके साथियों को भी नजर आने लगेगा।

सकारात्मकता अपने आप में सफलता, संतोष और संयम लेकर आती है। व्यक्ति मूलतः सकारात्मक ही होता है, परंतु कई बार गलत कदमों के कारण असफलता हाथ लग जाती है। इस असफलता का व्यक्ति पर कई तरह से असर पड़ता है। वह भावनात्मक रूप से टूटता है, वहीं इन सभी का असर उसके व्यक्तित्व पर भी पड़ता है। व्यक्तित्व पर असर लंबे समय के लिए पड़ता है तथा वह कई बार अवसाद में भी चला जाता है और यही अवसाद संत्रास का रुप ले लेती है। 

नकारात्मकता के कारण जो संत्रास पैदा हुई उस का जवाब सकारात्मकता के अलावा कुछ भी नहीं हो सकता यह बात मन में बैठा लें। इसके बाद जो भी नकारात्मक विचार मन में आए उसके साथ तर्क करना सीखें और वह भी सकारात्मकता के साथ। जिस प्रकार से नकारात्मक विचार लगातार आते रहते हैं, ठीक उसी तरह से आप स्वयं से सकारात्मक विचारों के लिए स्वयं को प्रेरित करें और हमेशा के लिये सामाजिक संत्रास को अलविदा कह दें।

कमलेश अग्रवाल

 

 

अहोई अष्टमी

17 अक्टूबर

व्रत एवं त्योहारों की दृष्टि से कार्तिक मास की महिमा अतुलनीय है। पति की रक्षा व सम्मान के लिए जहां महिलायें कार्तिक मास की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत रखती हैं वहीं अपने वंश के संचालक पुत्र/पुत्री की दीर्घायु व प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सबसे पवित्र दिन यानी कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वे अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं। सदियों से ऐसी मान्यता प्रचलित है कि अहोई अष्टमी का व्रत रखने से संतान के जीवन में सुख-समृद्धि आती है। करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद अष्टमी तिथि को देवी अहोई माता का ये व्रत किया जाता है। करवा चौथ की ही तरह यह भी एक कठिन व्रत है। महिलाएं विशेष रूप से इस व्रत को पूरी श्रद्धा और विधि-विधान से करती हैं।

अहोई शब्द अनहोनी का अपभ्रंश है। इसीलिये अपने संतानों की लंबी आयु और अनहोनी से रक्षा के लिए महिलायें यह व्रत रखती हैं और साही माता एवं भगवती से प्रार्थना करती हैं कि उनकी संतान दीर्घायु हों। वस्तुतः यह व्रत दीपावली से ठीक एक सप्ताह पूर्व आता है।  इसी मान्यता को लेकर देश के कई भागों में इस दिन माताएं अपनी संतान की लंबी उम्र के लिए ये व्रत रखती हैं और अहोई देवी के चित्र, सेई और सेई के बच्चों के चित्र बनाकर उनकी पूजा करती हैं। 

अहोई अष्टमी की कथा के अनुसार एक साहूकार था। इस साहूकार की सात बहुएं थीं जो दीपावली में घर के आँगन को लिपने के लिये मिट्टी लाने जाती हैं। मिट्टी खोदते समय छोटी बहू के हाथों अनजाने में कांटे वाले पशु साही के बच्चों की मृत्यु हो जाती है।

नाराज साही श्राप देती है, जिससे छोटी बहू के सभी बच्चे मर जाते हैं। बच्चों को फिर से जीवित करने के लिए साहूकार की बहू साही और भगवती की पूजा करती है। इससे छोटी बहू की मृत संतान फिर से जीवित हो जाती है।

प्राचीनकाल में एक और कथा भी प्रचलित है। एक साहूकार दंपती के शिशु जन्म लेते ही अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते थे। इससे दुखी होकर वे अपना घर-बार छोड़कर वन में चले गए। वहां उन्होंने अन्न-जल त्याग कर भगवान का ध्यान करना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद यह आकाशवाणी हुई कि तुम अपने प्राण मत त्यागो। अभी तक तुम्हें जो भी कष्ट प्राप्त हुआ है, वह तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्मो का फल है। तुम अपनी पत्नी से कहो कि वह कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी को व्रत रखे। इससे अहोई माता प्रसन्न होकर तुम्हारे पास आएंगी। तब तुम दोनों उनसे अपने लिए स्वस्थ और दीर्घायु संतान का वरदान मांगना। व्रत वाले दिन तुम दोनों वृंदावन स्थित राधाकुंड में स्नान करना। इससे तुम्हारी यह मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। इसके कुछ ही दिनों बाद साहूकार की पत्नी ने अहोई अष्टमी का व्रत रखा। अगले वर्ष उन के यहां एक स्वस्थ-सुंदर बालक ने जन्म लिया। इस चमत्कार के बाद से सभी स्त्रियां संतान सुख की प्राप्ति के लिए अहोई अष्टमी का व्रत रखने लगीं। शायद इसी लिये लगभग पूरे उत्तर भारत में यह व्रत प्रचलित है। 

ये भी माना जाता है कि इसी दिन वृंदावन में राधाकुंड का प्राकट्य हुआ था। लोगों का ऐसा विश्वास है कि राधाकुंड में स्नान करने से नि:संतान दंपतियों को संतान सुख की प्राप्ति होती है। इसी कारण अहोई अष्टमी की रात्रि में राधाकुंड के स्नान का विशेष महत्व है।

अंत में सायंकाल पूजा करने के बाद अहोई माता की कथा का श्रवण कर सास-ससुर और घर में बडों के पैर छुकर आशीर्वाद लिये जाता है। तारे निकलने पर इस व्रत का समापन किया जाता है। तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है और तारों की आरती उतार संतान से जल ग्रहण कर, व्रत का समापन किया जाता है।

आज के समय में भी संस्कार शील माताओं द्वारा जब अपनी संतानों की इष्ट कामना के लिए अहोई माता का व्रत रखा जाता है और सांयकाल अहोई मता की पूजा की जाती है तो निश्चित रूप से इसका शुभफल उन को मिलता ही है और संतान चाहे पुत्र हो या पुत्री, उसको भी निष्कंटक जीवन का सुख मिलता है। 

जय अहोई माता की….

कमलेश अग्रवाल

अखंड सौभाग्य की कामना व चांद के दीदार का पर्व, करवा चौथ

11 अक्टूबर

भारत त्योहारों की भूमि है। यहां हर त्योहार अपनी कुछ विशिष्ट परम्परा  लिये हुए है । करवा चौथ पर्व को मनाने के पीछे भी एक विशिष्ट कारण है । ये एक सदियों से चली आ रही परम्परा है । इस पर्व में महिलाओं के पति प्रेम, पारिवारिक सुख-समृद्धि एवं सामाजिक प्रतिष्ठा व उन के त्यागमय जीवन के दर्शन होते हैं। भारत में नारी के त्याग एवं समर्पण के कारण ही उसे देवी शक्ति के रूप में मान्यता मिली है। धार्मिक, सांस्कृतिक एवम सामाजिक प्रतिष्ठा के कार्यों द्वारा ही इन की गिनती विश्व की श्रेष्ठ नारियों में की जाती रही है । पारिवारिक संतुलन के लिए इन का धैर्य एवं सहनशीलता ही इन्हें पूजनीय बनाते हैं । 

किसी भी सुहागिन स्त्री के लिए अपने पति के लिए तैयार होने से बढ़कर और कुछ नहीं होता। करवा चौथ ऎसा ही त्यौहार है । कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी यानी करक चतुर्थी के दिन ये व्रत स्त्रियां अपने अखंड सौभाग्य की कामना और अपने पति की दीर्घायु के लिए रखती हैं। इस व्रत में शिव-पार्वती, गणेश और चन्द्रमा का पूजन किया जाता है । इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर सुहागन स्त्रियां पति की लंबी आयु की कामना करते हुए निर्जला व्रत रखती हैं। ये व्रत पति-पत्नी के आत्मिक रिश्ते और अटूट बंधन का प्रतीक है जो संबंधों में नई ताजगी एवं मिठास लाता है ।

इस व्रत की शुरुआत प्रातःकाल सूर्योदय से पहले ही हो जाती है । प्रात: 4 – 4:30 बजे उठ कर महिलायें सरगी खाती हैं । इस व्रत में सरगी का काफी महत्व है। सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है । यह सरगी, सौभाग्य और समृद्धि का रूप मानी गई है । इस सरगी में फल, मेवा, मिठाई भेजी जाती है

फिर महिलाएं मनपसंद साँड़ियाँ, गहने पहन कर सोलह शृंगार कर ये व्रत को रखती हैं ।

इस व्रत में एक और चीज का भी महत्व है जो है करवा । करवा का अर्थ होता है मिट्टी का बर्तन । मिट्टी के बर्तन को ठोकर लग जाए तो चकनाचूर हो जाता है, फिर जुड़ नहीं पाता है । इसलिए करवा चौथ के व्रत को करते समय हर महिला ये ध्यान रखती है कि करवा सलामत रहे । क्योंकि ये करवा पति-पत्नी के प्रेम और विश्वास का ही प्रतीक है सो इस प्रेम और विश्वास को ठेस नहीं लगनी चाहिये इस बात का वे पूरा-पूरा  ध्यान रखती हैं ।

करक चतुर्दशी के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है, जिसके अनुसार करवा नाम की एक स्त्री थी । वह बहुत पतिव्रता थी। वह अपने पति के साथ तुंगभद्रा नदी के पास एक गांव में रहती थी । एक बार करवा का पति नदी के किनारे कपड़े धो रहा होता है । तभी अचानक वहां एक मगरमच्छ आता है । वह उसके पति का पांव अपने मुंह में दबा लेता है और उसे नदी में खींचकर ले जाने लगता है । तब उसका पति जोर-जोर से अपनी पत्नी को करवा-करवा कह कर मदद के लिए पुकारने लगता है । पति की आवाज सुन कर करवा भागी-भागी वहां पहुँचती है । इसी दौरान वह अपने पति को फंसा देख मगरमच्छ को कच्चे धागे से बांध देती है । फिर वह यमराज से अपने पति के जीवन की रक्षा करने को कहती है । करवा की करुण व्यथा देख कर यमराज उससे कहते हैं कि वह मगर को मृत्यु नहीं दे सकते क्योंकि उसकी आयु शेष है, परंतु करवा के पति-धर्म को देख यमराज मगरमच्छ को यमपुरी भेज देते हैं । करवा के पति को दीर्घायु प्राप्त होती है और यमराज करवा से प्रसन्न हो उसे वरदान देते हैं कि जो भी स्त्री कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को व्रत का पालन करेगी, वह सौभाग्यवती होगी । तब से करवा-चौथ व्रत को मनाने की परंपरा चली आ रही है ।

धर्म ग्रंथों में महाभारत से संबंधित एक और पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया गया है । इसके अनुसार पांडुपुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं व दूसरी ओर बाकी पांडवों पर कई प्रकार के संकट आन पड़ते हैं । यह सब देख द्रौपदी चिंता में पड़ जाती हैं । वह भगवान श्रीकृष्ण से इन सभी समस्याओं से मुक्त होने का उपाय पूछती हैं ।

महाभारत काल में पांडवों के दुख के दिनों में श्रीकृष्ण द्रौपदी से कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करक चतुर्थी अर्थात करवा चौथ का व्रत रखें तो उन्हें इन सभी संकटों से मुक्ति मिल जायेगी । द्रौपदी पुर्ण श्रध्धा से ये व्रत रखती हैं और अर्जून सकुशल वापस आ जाते हैं बस माना जाता है कि तभी से करवा-चौथ व्रत को मनाने की परंपरा चली आ रही है ।

करवा चौथ में छलनी लेकर चांद को देखना यह भी सिखाता है कि पतिव्रत का पालन करते हुए किसी प्रकार का छल उसे पतिव्रत से डिगा न सके।

करवा चौथ महज एक व्रत नहीं है, बल्कि सूत्र है, विश्वास का कि पति-प्त्नी साथ-साथ रहेंगे, आधार है जीने का कि पति-प्त्नी का साथ कभी न छूटे।

 करवा चौथ जबरन नहीं प्यार से, विश्वास से मनायें, इस यकीन से मनायें कि आप दोनों पति-प्त्नी का प्यार अमिट और शाश्वत रहे।

आप सभी को करव चौथ की शुभकामना…..

कमलेश अग्रवाल